जगद्गुरु आदि शंकराचार्य — शुद्ध हिंदी संस्करण (पूर्ण)
परिचय
नमस्कार दोस्तों…
Beiing Spiritual में आपका एक बार फिर स्वागत है।
मैं हूँ तोशिका… फिर एक नई कहानी के साथ।
आज की यह कहानी… बेहद खास है। खासकर उनके लिए… जो वेदों और सनातन धर्म में अपनी अपार श्रद्धा और विश्वास रखते हैं।
आज हम बात करेंगे उस महान विभूति की, जिन्होंने सनातन धर्म को पुनः स्थापित किया और फिर से एक सही दिशा दी, और सनातन धर्म के टिमटिमाते हुए दीपक को सूर्य के प्रकाश की भांति बदलकर चारों दिशाओं में फैला दिया — जिसकी रोशनी अब भी ठीक वैसे ही बरकरार है।
और वे थे… जगद्गुरु आदि शंकराचार्य।
मुझे यकीन है— आपने उनका नाम जीवन में कई बार सुना होगा। लेकिन आज… हम जानेंगे… कि वे इतने महत्त्वपूर्ण क्यों हैं और क्यों उन्हें वैदिक धर्म का एक मुख्य स्तंभ माना जाता है?
तो चलिए शुरू करते हैं…
धर्म की परिभाषा
वैसे तो हर किसी की नज़र में धर्म के अलग-अलग अर्थ हैं।
पर सामान्य तौर पर धर्म केवल पूजा-पाठ, व्रत या किसी एक नियम या पंथ तक सीमित नहीं है।
बल्कि इसमें वह व्यवहार, नियम और वे विचार भी शामिल हैं जो इस धरती पर रहने वाले सभी लोगों के जीवन में आपसी संतुलन बनाए रखते हैं — और वह भी बिना किसी टकराव के।
साथ ही, वही धर्म हमें उस परमात्मा शक्ति से भी जोड़ता है — जो हर एक के मूल में समाई है, फिर चाहे वह जड़ हो या चेतन।
उदाहरण के तौर पर, आप धर्म को समुद्र के उन असंख्य जीवों की तरह समझिए, जहाँ हर जीव का रूप और स्वभाव अलग-अलग है, लेकिन उनकी मूल आवश्यकता एक ही है — समुद्र में बने रहना।
ठीक वैसे ही, मनुष्य के लिए धर्म है।
हमारा निजी धर्म, हमारी परंपराएँ, विचार और जीवन जीने का तरीका, भले अलग-अलग क्यों न हों, लेकिन धर्म के बिना इस जीवन में संतुलन और इस जीवन के बाद की यात्रा, दोनों ही असंभव हैं।
और जब धर्म की रेखा हमारे जीवन में खिंचती है, तो वह हमें न केवल सही और गलत का ज्ञान कराती है, बल्कि हमारे जीवन के कर्तव्यों और मर्यादाओं की याद भी दिलाती है।
दरअसल धर्म, जीवन के उस विज्ञान की तरह है जो मनुष्य और प्रकृति के बीच संतुलन बनाए रखता है।
जैसे —
जल का धर्म है हमें शीतलता देना,
अग्नि का धर्म है जलाना,
सूर्य का धर्म है प्रकाश देना।
वैसे ही मनुष्य का धर्म है — सच्चाई, करुणा और त्याग के साथ जीना।
पर उससे भी बड़ा धर्म क्या है? — इसका वर्णन स्वयं श्रीकृष्ण गीता में करते हैं।
“सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।”
— सब धर्मों को त्यागकर मेरी शरण में आओ। मैं तुम्हें मुक्त कर दूँगा।
इसलिए ईश्वर में पूर्ण समर्पण और विश्वास ही जीवन का असली उद्देश्य और सर्वोपरि धर्म है।
समय के तौर पर यही धर्म अन्य सभी धर्मों को आपस में जोड़ता है। चाहे फिर कोई किसी भी पंथ या मत से क्यों न जुड़ा हो।
आप कह सकते हैं यही धर्म सभी धर्मों की आधारशिला है, जो जीवन को अर्थपूर्ण और उद्देश्यपूर्ण बनाता है।
आठवीं शताब्दी का भारत
वैसे तो इस दुनिया में अनेकों धर्म हैं और उन्हें मानने वाले असंख्य लोग भी हैं।
लेकिन आज हम जिस धर्म की बात कर रहे हैं — वह है हिन्दू धर्म, जिसे कभी-कभी हम वैदिक धर्म या सनातन धर्म के नाम से भी जानते हैं।
हिन्दू धर्म की विशेषता यह है कि यह धर्म हमें साधारण जीवन के कर्तव्यों से लेकर मानव धर्म तक सिखाता है, और अंततः हमें उस परम धर्म की ओर ले जाता है, जहाँ हमें आत्मबोध होता है — जहाँ हम समझ पाते हैं कि हम वास्तव में कौन हैं और जीवन का असली उद्देश्य क्या है।
पर ज़रा सोचिए…
जिस धर्म का सूरज, हमें हज़ारों वर्षों से लेकर आज तक चमकता हुआ दिखाई दे रहा है —
पर क्या कभी समय के प्रहार से यह धुंधला पड़ गया होता?
तो क्या आज हमारी पहचान वैसी ही रहती, जैसी आज है?
अगर नहीं! तो शायद आज हम हिंदू होने की बजाय, किसी और मत या पंथ का हिस्सा होते।
मैं बात कर रही हूँ आठवीं शताब्दी के उस भारत की, जब हिंदू धर्म अपनी ही धरती पर धीरे-धीरे समाप्त होता जा रहा था।
यह वह समय था जब कई हज़ारों सालों पुराना यह धर्म खत्म होने की कगार पर था।
एक ओर बौद्ध और जैन धर्म अपनी गहरी पकड़ बना चुके थे। बौद्ध धर्म तो वैदिक धर्म के वेदों और उपनिषदों को नहीं मानता था… वहीं, अनेक राजाओं और उनकी प्रजाओं ने कुछ जटिलताओं के कारण वैदिक धर्म और उसके कर्मकांडों को पीछे छोड़कर इन नए मार्गों को अपनाना शुरू कर दिया था।
तो दूसरी ओर, बहुत से लोग नास्तिक विचारधारा में डूबकर, केवल भौतिक सुखों को ही, जीवन का अंतिम सत्य मानने लगे थे।
और स्वयं सनातन धर्म को मानने वाले भी अनेक पंथों में बँट चुके थे —
- कोई केवल शिव का उपासक था,
- कोई केवल विष्णु का,
- कोई केवल शक्ति की, तो कोई गणेश की साधना में लीन था।
भक्ति तो थी, लेकिन वह कई टुकड़ों में बँटी हुई थी।
समाज में मतभेद और विभाजन इतना बढ़ गया था कि ये पंथ आपस में ही टकराने लगे… और कभी-कभी यह टकराव हिंसा का रूप भी ले लेता था।
गीता का उद्धरण
पर जैसे स्वयं श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है (अध्याय 4, श्लोक 7 और 8):
“यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥4-7॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥4-8॥”
अर्थ:
श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं —
जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं स्वयं को प्रकट करता हूँ।
साधुओं की रक्षा, दुष्टों के विनाश और धर्म की पुनः स्थापना के लिए मैं प्रत्येक युग में जन्म लेता हूँ।
अवतरण
अपने इसी वचन को पूरा करने हेतु, उन्होंने मानव रूप में पुनः पृथ्वी पर जन्म लिया, और जगद्गुरु आदि शंकराचार्य कहलाए।
उन्होंने अपनी अद्भुत ज्ञानशक्ति और दिव्य पुरुषार्थ के बल पर, मुरझाती हुई सनातन धर्म की जड़ों को, फिर से सींचा और अद्वैत का ज्ञान देकर वैदिक धर्म को पुनः स्थापित किया।
यही कारण है कि आज भी उनका जन्म हिंदू धर्म के लिए एक अमूल्य धरोहर है।
जन्मकथा
आदि शंकराचार्य का जन्म लगभग 1200 वर्ष पहले, 788 ईस्वी के आसपास, केरल राज्य के छोटे से गाँव कालड़ी में हुआ। उनके पिता का नाम शिवगुरु था, जो विद्वान ब्राह्मण और धार्मिक कर्मकांडों में निपुण थे। उनकी माता आर्यांबा अत्यंत श्रद्धावान और ईश्वर-भक्त थीं।
विवाह के कई वर्षों बाद भी संतान न होने से दंपत्ति अत्यंत दुखी रहते थे। अंततः उन्होंने पुत्र-प्राप्ति के लिए भगवान महादेव की कठोर तपस्या की। वर्षों की तपस्या के बाद भगवान शंकर ने शिवगुरु के स्वप्न में प्रकट होकर कहा —
“वत्स, तुम्हारी तपस्या सफल हुई है। बताओ, तुम्हें कैसा पुत्र चाहिए — अल्पायु किंतु परम ज्ञानी, या दीर्घायु किंतु मंदबुद्धि?”
स्वप्न में ही शिवगुरु ने उत्तर दिया —
“देव, मूर्ख पुत्र तो यम के समान है। यदि आप प्रसन्न हैं तो हमें केवल एक ज्ञानी पुत्र ही दीजिए।”
भगवान शंकर ने “तथास्तु” कहकर आशीर्वाद दिया और अंतर्ध्यान हो गए। शीघ्र ही आर्यांबा के गर्भ से एक पुत्र का जन्म हुआ। भगवान शिव की कृपा से जन्मे इस बालक का नाम रखा गया — शंकर।
कहा जाता है कि दो वर्ष की आयु में ही शंकर ने अपनी मातृभाषा मलयालम पूरी तरह बोलना सीख लिया। दुर्भाग्यवश तीन वर्ष की आयु में उनके पिता का निधन हो गया। इसके बाद उनकी माता आर्यांबा ने ही अकेले उनका पालन-पोषण किया।
बचपन से ही शंकर असाधारण बुद्धि और अद्भुत स्मरणशक्ति वाले थे। चार वर्ष की आयु में वे संस्कृत श्लोक सहजता से कंठस्थ कर लेते और गा-गाकर सुनाते। पाँच वर्ष की आयु में जब उन्हें शिक्षा के लिए गुरुकुल भेजा गया, तो केवल दो वर्षों में उन्होंने वह सारी विद्या समाप्त कर ली, जिसे सामान्यतः पूरा करने में शिष्यों को बीस वर्ष लगते थे।
सिर्फ सात वर्ष की आयु में ही शंकर ने वेद, उपनिषद और व्याकरण के गहन ज्ञान से सबको चकित कर दिया। और आठ वर्ष की आयु तक आते-आते उन्हें विद्वानों के समान माना जाने लगा।
उपलब्धियाँ
बचपन से ही संसार के प्रति वैराग्य रखने वाले शंकर ने आठ वर्ष की अल्पायु में ही अपनी माता की अनुमति से संन्यास ले लिया। वे आचार्य गोविंदपाद के शिष्य बने और उनसे ब्रह्मज्ञान की शिक्षा प्राप्त की।
गुरु की छत्रछाया में उन्होंने वेद, उपनिषद, ब्रह्मसूत्र और भगवद्गीता जैसे गहन ग्रंथों का अध्ययन किया और उन पर संस्कृत में भाष्य लिखे। ये भाष्य इतने सरल और स्पष्ट थे कि सामान्य लोग भी अद्वैत वेदांत के गूढ़ सिद्धांतों को समझ सके।
आदि शंकराचार्य ने एक ही श्लोक में वेदांत का सार प्रस्तुत कर दिया:
“ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापरः।”
अर्थात् — केवल ब्रह्म ही सत्य है, यह संसार अस्थायी और मायाजनित है, और जीवात्मा वास्तव में ब्रह्म से अलग नहीं है।
उनकी प्रमुख उपलब्धियों में शामिल हैं —
- प्रस्थानत्रयी पर भाष्य: उपनिषद, ब्रह्मसूत्र और भगवद्गीता पर लिखे उनके भाष्य अद्वैत वेदांत की नींव बने।
- प्रकरण ग्रंथ: आम जन के लिए उन्होंने विवेकचूडामणि, उपदेशसाहस्री, आत्मबोध, अपरोक्षानुभूति, साधनापञ्चकम्, निर्वाणषट्कम्, मनीषापञ्चकम्, और प्रश्नोत्तररत्नमालिका जैसे ग्रंथ लिखे।
- भक्ति साहित्य: उन्होंने अनेक स्तोत्र और भजन रचे — जैसे भज गोविन्दम्, सौन्दर्यलहरी, कनकधारा स्तोत्रम्, दक्षिणामूर्ति स्तोत्रम्, शिवानन्द लहरी आदि।
- चार मठों की स्थापना: भारत के चारों दिशाओं में पदयात्रा कर उन्होंने शृंगेरी, द्वारका, पुरी और ज्योतिर्मठ में मठ स्थापित किए। इनसे आज भी वेदों की शिक्षा और संरक्षण होता है।
- पंचायतन पूजा का प्रचार: उन्होंने पाँच देवताओं — शिव, विष्णु, शक्ति, सूर्य और गणेश — की सामूहिक पूजा की पद्धति शुरू की, जिससे समाज में एकता और सौहार्द बढ़ा।
- शास्त्रार्थ और विजय: उन्होंने अनेक विद्वानों से शास्त्रार्थ किए। मंडन मिश्र के साथ उनका शास्त्रार्थ ऐतिहासिक माना जाता है, जिसके बाद मंडन मिश्र संन्यासी बने और सुरेश्वराचार्य कहलाए।
केवल 32 वर्ष की अल्पायु में उन्होंने वह सब कार्य कर दिखाए, जो सामान्य व्यक्ति कई जन्मों में भी न कर पाए।
समापन
अपने इसी असाधारण और अमूल्य योगदान से जगद्गुरु आदि शंकराचार्य ने हिंदू धर्म को पुनः स्थापित किया।
उनका जन्म वास्तव में हिंदू धर्म के लिए एक चमत्कार था — ऐसा चमत्कार जिसने सनातन धर्म को बचाने में निर्णायक भूमिका निभाई।
उनके द्वारा मंदिरों की पूजा पद्धति को भी सुधारा गया, जो आज भी सभी मंदिरों में अपनाई जाती है, और केदारनाथ जैसे दिव्य मंदिरों का पुनर्निर्माण और पुनर्जागरण किया।
और माना जाता है कि केदारनाथ में ही उन्होंने निर्वाण (महासमाधि) प्राप्त की।
उनके इसी योगदान को जानते और समझते हुए, आज हमारा कर्तव्य है कि हम अपने धर्म की मशाल को यूँ ही जलाए रखें और उसे कभी बुझने न दें। यही हमारे वर्तमान और भविष्य की असली पहचान है।
और इसी वादे के साथ आपसे विदा लेती हूँ, कि हम भविष्य में उन्हें, पूरे सम्मान और आदर से सदैव याद करते रहेंगे…
और अंत में, मैं केवल यही कहना चाहूँगी —
‘धर्मो रक्षति रक्षितः’ —
जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है।
आज के लिए बस इतना ही,
आशा है कि आपको आज की यह कहानी ज़रूर पसंद आई होगी।
आप सबको मेरा नमस्कार।
ॐ हरिः ॐ तत्सत्।
Leave a Reply